देहरादून, 31 अक्टूबर 2025
उत्तराखंड की पर्वतीय संस्कृति में दीपावली के 11 दिन बाद मनाई जाने वाली ‘इगास’ (बूढ़ी दिवाली) का विशेष महत्व है। यह पर्व न केवल उल्लास और पारंपरिक उत्सव का प्रतीक है, बल्कि अपनी लोकसंस्कृति, वेशभूषा और रीति-रिवाजों को जीवंत रखने का भी माध्यम है। इस वर्ष इगास का पर्व शनिवार को पूरे प्रदेश में धूमधाम से मनाया जाएगा।
देहरादून में इगास की धूम: ढोल-दमाऊं, भैलो और पारंपरिक व्यंजन की खुशबू
देहरादून सहित पूरे राज्य में इगास की तैयारियां चरम पर हैं। विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों की ओर से कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं।
शहर में पारंपरिक ढोल-दमाऊं की थाप पर लोग भैलो खेलते और लोकगीतों पर नृत्य करते नजर आएंगे।
पकौड़े, स्वाले, झंगोरे और पहाड़ी व्यंजनों की खुशबू से वातावरण महक उठेगा। इस अवसर पर लोक संस्कृति को संजोने वाले कलाकारों और समाजसेवियों को सम्मानित भी किया जाएगा।
राजधानी में सांस्कृतिक कार्यक्रम और पारंपरिक प्रदर्शन
उत्तराखंड संस्कृति, साहित्य एवं कला परिषद की ओर से मुख्यमंत्री आवास में विशेष इगास कार्यक्रम का आयोजन किया जाएगा।
परिषद की उपाध्यक्ष मधु भट्ट ने बताया कि इस आयोजन में राज्य की लोकसंस्कृति, लोकनृत्य, पारंपरिक वेशभूषा और भोजन की झलक देखने को मिलेगी।
वहीं, शहीद स्मारक परिसर में उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी मंच की ओर से भी इगास पर्व धूमधाम से मनाया जाएगा। मंच के प्रदेश प्रवक्ता प्रदीप कुकरेती ने बताया कि अब युवा पीढ़ी भी इस लोक पर्व से जुड़ रही है, जो पहाड़ की परंपरा के संरक्षण के लिए सकारात्मक संकेत है।
ऐसा पर्व जहां नहीं होती आतिशबाजी, बल्कि होती है लोकआस्था की रोशनी
इगास की सबसे विशेष बात यह है कि इस पर्व में कोई आतिशबाजी नहीं होती। इसके बजाय, लोग रात के समय ‘भैलो’ खेलते हैं—जो चीड़ या देवदार की लीसायुक्त लकड़ी से बनाई जाती है।
इस लकड़ी को आग लगाकर घुमाया जाता है, जिससे चारों ओर एक अद्भुत दृश्य बनता है। यह परंपरा आस्था, रोशनी और ऊर्जा का प्रतीक मानी जाती है।
पहले यह पर्व पहाड़ों के गांवों में बहुत भव्य रूप से मनाया जाता था, लेकिन अब पलायन के कारण शहरों में बसे पहाड़ी लोग भी इसे धूमधाम से मनाने लगे हैं, ताकि नई पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़ी रह सके।
मवेशियों के लिए भी होता है विशेष अनुष्ठान
इगास के दिन केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि मवेशियों की भी पूजा की जाती है।
इस दिन उन्हें भात और झंगोरे का पींडू (पौष्टिक आहार) खिलाया जाता है।
मवेशियों को तिलक लगाकर फूलों की माला पहनाई जाती है, और जब वे पींडू खा लेते हैं, तो उन्हें चराने वाले बच्चों को पुरस्कार दिया जाता है — जो मानव और प्रकृति के सहअस्तित्व की प्रतीक परंपरा है।
इगास मनाने की मान्यताएं और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
आचार्य शिव प्रसाद ममगाईं के अनुसार, पहाड़ों में एकादशी को ‘इगास’ कहा जाता है।
एक मान्यता के अनुसार, भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना गढ़वाल में 11 दिन बाद मिली थी, इसलिए दीपावली के 11वें दिन इसे मनाया जाता है।
दूसरी मान्यता यह है कि दीपावली के समय गढ़वाल के वीर सेनानायक माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में सेना ने तिब्बत के दापाघाट युद्ध में विजय प्राप्त की थी।
युद्ध से लौटने के 11वें दिन जब सैनिक अपने घर पहुंचे, तब पूरे क्षेत्र ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया — यही परंपरा ‘इगास’ के रूप में जीवित है।
देवोत्थान एकादशी से शुरू होंगे मांगलिक कार्य
इगास के साथ ही देवउठनी या देवोत्थान एकादशी का पर्व भी शनिवार से शुरू होगा।
इस दिन से विवाह, गृह प्रवेश और अन्य मांगलिक कार्यों की शुरुआत की जाती है।
मान्यता है कि देवशयनी एकादशी से भगवान विष्णु चार महीने तक योग निद्रा में रहते हैं, और देवोत्थान एकादशी पर उनके जागने के बाद सभी शुभ कार्य आरंभ हो जाते हैं।
निष्कर्ष
उत्तराखंड की ‘इगास’ केवल एक पर्व नहीं, बल्कि लोकजीवन, परंपरा और प्रकृति के प्रति श्रद्धा का उत्सव है।
यह पर्व दिखाता है कि आधुनिकता की दौड़ में भी पहाड़ी समाज अपनी सांस्कृतिक जड़ों और लोक परंपराओं को सहेजने के लिए कितना समर्पित है।
इगास की यह ज्योति सिर्फ घरों को नहीं, बल्कि पहाड़ी संस्कृति की आत्मा को भी उजाला देती है।


