रिकार्ड में मजार का जिक्र नहीं

दून अस्पताल की शुरुआत वर्ष 1854 में नगर पालिका के अधीन डिस्पेंसरी के रूप में हुई थी। इससे समझा जा सकता है कि अस्पताल का इतिहास कितना पुराना है। ऐसे में जिलाधिकारी सविन बंसल के निर्देश पर सिटी मजिस्ट्रेट प्रत्यूष सिंह ने अस्पताल प्रशासन को पत्र भेजकर मजार के अभिलेख मांगे तो उत्तर में अस्पताल ने स्पष्ट किया था कि उनके रिकार्ड में मजार का जिक्र नहीं है। 

मजार के अभिलेख देखने के लिए अस्पताल के अधिकारियों ने पुरानी ड्राइंग का भी परीक्षण किया। यहां भी मजार का अस्तित्व नहीं पाया गया। इससे साफ है कि मजार बाद भी कभी बनाई गई होगी। लिहाजा, अस्पताल प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग को करीब चार वर्ष पहले शिकायत के संज्ञान में आते ही इसे हटाने की कार्रवाई शुरू कर देनी चाहिए थी। यदि ऐसा कर लिया जाता तो अस्पताल प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग की भूमिका पर अब सवाल खड़े नहीं होते। 

मरीजों को होती थी परेशानी

अस्पताल परिसर में फर्जी मजार की मौजूदगी से मरीजों को भी परेशानी होती थी। आवाजाही में भी दिक्कत आती थी। मरीज और उनके तीमारदार अक्सर आरोप लगाते थे कि मजार का खादिम वार्डों में जाकर स्वस्थ होने के लिए मजार में मत्था टेकने को कहता था। बावजूद इसके स्वास्थ्य विभाग ने कभी मजार को हटाने की पहल की। 

मरीजों को स्वस्थ होने के लिए मजार का रुख कराता था खादिम

दून अस्पताल परिसर में बनी फर्जी मजार में प्रतिदिन बड़ी संख्या में चादर व चढ़ावा चढ़ाया जाता था। आरोप है कि फर्जी मजार का खादिम वार्डों में जाकर तीमारदारों से मिलता था और मरीजों के स्वस्थ होने के लिए यहां मत्था टेकने को कहता था। परेशान मरीजों के तीमारदार स्वास्थ्य की चिंता को देखते हुए फर्जी मजार में मत्था टेकने के लिए पहुंचते थे।बताया जा रहा है कि कुछ लोग अपनी श्रद्धा से चढ़ावा चढ़ाते थे, जबकि कुछ लोगों को इरादतन फर्जी मजार का रुख कराया जाता था। फर्जी मजार में चादर व चढ़ावा चढ़ाने और अगरबत्ती जलाने वालों में सभी धर्मों के लोग शामिल थे। हर गुरुवार को मरीजों के साथ बाहर से आने वाले लोग भी कतार में लगकर मत्था टेकते थे।

फर्जी मजार के कारण दून अस्पताल के बाहर अवैध तरीके से चादर व अन्य सामान बेचने वालों की ठेलियां भी लगी रहती थीं। नगर निगम की टीम ने कई बार इन पर कार्रवाई भी की।