BREAKING

देहरादून में सवा लाख जिंदगियां खतरे में: नदियों के किनारे बसीं बस्तियां बनीं ‘आपदा की प्रतीक्षा’ – पुनर्वास योजनाएं ठप, केवल आदेशों के सहारे जिंदा है उम्मीद

देहरादून, 7 अगस्त 2025


उत्तरकाशी के धराली में हाल ही में आई प्राकृतिक आपदा ने उत्तराखंड की राजधानी देहरादून की एक बड़ी हकीकत को फिर उजागर कर दिया है। करीब 1.25 लाख लोग देहरादून में ऐसी जगहों पर रह रहे हैं, जहां सिर्फ एक मूसलधार बारिश या बादल फटने से सब कुछ तबाह हो सकता है। नदियों और नालों के किनारे बसी इन मलिन बस्तियों में जीवन हर रोज़ एक जुए की तरह है – न कोई सुरक्षा, न स्थायी समाधान।

129 बस्तियों में मौत की आशंका, पुनर्वास अधर में

शहर के भीतर रिस्पना, बिंदाल और अन्य छोटी नदियों के किनारे 129 मलिन बस्तियां बसी हैं, जिनमें से अधिकांश वर्षों पुरानी हैं। देहरादून नगर निगम के आंकड़ों के अनुसार, 40,000 से अधिक मकान नदी और नालों के किनारे अवैध रूप से बने हैं।

इन बस्तियों को अध्यादेशों के ज़रिए ‘कानूनी सुरक्षा कवच’ जरूर मिल गया है, लेकिन पुनर्वास पर किसी भी सरकार ने ठोस कदम नहीं उठाया। 2006 में एक सर्वे में 11,000 अवैध निर्माण चिन्हित किए गए थे, जो अब बढ़कर 40,000 से ऊपर पहुंच चुके हैं।

नगर निगम की सीमा का विस्तार कर 72 नए गांव शामिल किए गए हैं, जिनमें से कई गांव भी नदियों के किनारे बसे हैं, जिससे आपदा जोखिम और बढ़ गया है।


हाईकोर्ट के आदेश, नगर निगम की कार्रवाई

हाईकोर्ट के निर्देशों के बाद नगर निगम ने 2016 के बाद बिंदाल नदी के किनारे बने 310 अवैध निर्माणों की पहचान की और उन्हें नोटिस भेजकर स्वेच्छा से घर खाली करने का आदेश दिया गया है।

हालांकि पुनर्वास के नाम पर केवल काठबंगला बस्ती में 112 मकानों का निर्माण किया गया है, जो जरूरत के मुकाबले बेहद कम है।

नगर आयुक्त नमामी बंसल का कहना है कि पुनर्वास की प्रक्रिया जारी है और भविष्य में और प्रभावितों को बसाया जाएगा। लेकिन वास्तविकता यह है कि आपदा की आशंका के बीच ये प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे जैसे हैं।


राजनीतिक इच्छाशक्ति पर सवाल

2016 से पहले की बस्तियों को कांग्रेस सरकार ने अध्यादेश के ज़रिए वैधता दी थी, जिसे बीजेपी सरकार ने भी आगे बढ़ाया।

  • 2015 में हरीश रावत सरकार ने मलिन बस्ती नियमितीकरण नीति के तहत सिर्फ लोहारवाला और मछली तालाब बस्तियों को वैध ठहराया।
  • 2018 में हाईकोर्ट की सख्ती के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने मार्च 2016 से पहले बनी बस्तियों को अध्यादेश के माध्यम से राहत दी।

ये अध्यादेश हर तीन साल में राजनीतिक सहूलियत के लिए बढ़ा दिए जाते हैं, लेकिन पुनर्वास के वास्तविक कदम उठाने से सरकारें लगातार बचती रही हैं।

यानी वोट बैंक को बचाने के लिए बस्तियों को कानूनी सुरक्षा मिलती रही, पर उनकी जिंदगी को सुरक्षित करने की कोई ठोस योजना कभी सामने नहीं आई।


सबसे संवेदनशील इलाके: रिस्पना और बिंदाल नदी के किनारे

प्राकृतिक दृष्टि से रिस्पना और बिंदाल नदी के किनारे बसी बस्तियां सबसे ज्यादा संवेदनशील हैं।
इन इलाकों में बारिश के दौरान नदियों का जलस्तर तेजी से बढ़ता है और बहाव संकरा होने की वजह से पानी बस्तियों में घुस जाता है।

रिस्पना के किनारे की संवेदनशील बस्तियां:

  • अधोईवाला
  • चूना भट्ठा
  • ऋषिनगर
  • इंदर रोड
  • मोहिनी रोड
  • दीपनगर
  • रामनगर

बिंदाल नदी के किनारे की बस्तियां:

  • कारगी
  • पटेलनगर
  • गोविंदगढ़
  • चुक्खुवाला तक का इलाका

निष्कर्ष:

देहरादून जैसे संवेदनशील शहर में, जहां हर मानसून एक नई आपदा की चेतावनी देता है, वहां पुनर्वास की अनदेखी सिर्फ प्रशासनिक चूक नहीं, बल्कि मानवता के प्रति लापरवाही है।

जब तक सरकारें केवल अध्यादेशों के सहारे बस्तियों को “बचा” कर खुद को राहत देती रहेंगी, और पुनर्वास के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनेगी, तब तक यह सवा लाख लोग आपदा की प्रतीक्षा में जीते रहेंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *